फिल्म समीक्षा : ‘ शिप ऑफ थीसस ’
निर्देशक : आंनद गांधी
निर्माता : सोहम शाह
कलाकार : सोहम शाह, आदिया अल काशेफ , नीरज कांबी
सिनेमेटोग्राफर :पंकज कुमार
लेखक : आंनद गांधी
रेटिंग : * * * *
जरा आप सोचकर देखिए कि उस निर्देशक की खुशी का ठिकाना क्या होगा, जब कोई दर्शक उससे यह कहे कि फिल्म बेहद शानदार है और इसने मेरी जिंदगी को बदलकर रख दिया है। अब आप सोच रहे होंगे कि क्या वास्तव में कोई फिल्म इतनी पावरफुल हो सकती है, जो लोगों की जिंदगी को बदल देने की क्षमता रखती हो तो? इसका जवाब है ‘शिप ऑफ थीसस’ जिसके निर्देशक है आंनद गांधी। फिल्म देश के प्रमुख महानगरों में रिलीज हो रही है, लेकिन इससे पहले देश-विदेश के कई फिल्म महोत्सव में इसे बहुत प्रशंसा मिली है और इसे उन फिल्मों में गिना जा सकता है, जिसे देखने के बाद जिंदगी में बदलाव संभव है। दरअसल, यह आम भारतीय फिल्मों से बेहद अलग है और दार्शनिकता का प्रवाह लिए हुए है। इसमें कहानी और विचार दोनों साथ-साथ चलते हैं।
फिल्म निर्देशक आनंद गांधी को इस बात के लिए साधुवाद देना चाहिए कि उन्होंने भारतीय सिनेमा को एक ऐसी फिल्म दी है, जिसे देखने के बाद विश्व सिनेमा में हमारी फिल्मों और फिल्मकारों के हुनर को और अधिक सम्मान के साथ देखा जाएगा। फिल्म की पटकथा, उसकी सिनेमेटोग्राफी और कहानी कहने का अंदाज इसे विजुअल मास्टरपीस की श्रेणी में खड़ा करता है ।
फिल्म की कहानी के साथ विचारों का प्रवाह और कमाल की सिनेमेटोग्राफी के साथ कलाकारों के अभिनय का जो बेजोड़ कॉकटेल बना है, उसे देखने के बाद आप कह उठगें कि वाह इस तरह का भी सिनेमा हो सकता है क्या? लेकिन यहां यह साफ कर देना भी जरूरी है कि यह फिल्म गंभीर और कुछ हटकर फिल्म देखने वाले दर्शकों के लिए है। इसलिए भारत में इसकी दर्शक संख्या अन्य फिल्मों की अपेक्षा कम ही रहेगी और हमें इस फिल्म को नंबर गेम से अलग ही रख कर देखना चाहिए। मात्र तीन करोड़ में इस तरह का दार्शनिक सिनेमा रचना एक बेहतरीन सोच वाले निर्देशक के ही बस की बात हो सकती है। इसलिए आंनद गांधी को एक नई लहर की तरह देखना चाहिए, जिनमें सिनेमा को एक नया आयाम देने की क्षमता है।
फिल्म का टाइटल ‘ शिप ऑफ थीसस ’ एक थॉट एक्सपेरिमेंट है जो उस ग्रीक मीथ पर आधारित है, जिसके अनुसार थीसस के जहाज का हर पुर्जा एक सदी बाद बदल दिया गया था। यानी पुराना जहाज अब नया हो गया। तो इस बात का पता कैसे चलेगा कि जो पुराना था, वह आखिर कब खत्म हो गया। इसी तरह से यह फिल्म भी एक खोज की तरह है, जिसमें व्यक्ति और उसकी पहचान और आने वाले बदलाव की बात है। इसे जब आप इंसानों पर लागू करते हैं तो पाते हैं कि हर सात साल में हम बदल जाते हैं, आप कौन हैं? क्या हैं? ऐसे सवालों का जवाब खोजती फिल्म ‘शिप ऑफ थीसस' तीन कहानियों के साथ आगे बढ़ती है। इसमें एक ब्लाइंड फोटोग्राफर (आदिया अल काशेफ) जो कुछ समय के लिए अंधेपन का शिकार हो जाती है और इस दौरान वह अपने सेंस के आधार पर चीजों को समझकर फोटो खींचती है और एक विशेष सॉफ्टवेयर और अपने मित्र के सहयोग से उनको समझने का प्रयास करती है। दूसरी कहानी एक ऐसे संत (नीरज कांबी) की है, जो जिंदगी भर एनिमल राइट़स और अहिंसा के लिए लड़ता है, लेकिन जब वह बीमार पड़ता है तो उसे ऐसी दवाइयां खाने के लिए डॉक्टर कहते हैं जो पशु हिंसा से बनी हैं। यहां संत को अब यह फैसला करना है कि वह दवाइयां ले या नहीं। अगर वह डॉक्टरों की बात मानता है तो वह अपनी उस लड़ाई को हार जाएगा और अगर वह नहीं मानता है तो इस बात की पूरी संभावना है कि उसकी मौत हो जाए।
तीसरी कहानी एक ऐसे एक स्टॉकब्रोकर (सोहम शाह) की है, जिसकी दुनिया बहुत छोटी है। उसकी किडनी का ट्रांसप्लांट हो चुका है और एक दिन जब जब वह किडनी के अवैध रैकेट की कहानी सुनता है तो उसे इस बात का शक हो जाता है कि उसे कहीं चोरी की किडनी तो नहीं लगी और अपने सवाल का जवाब खोजने के लिए वह उस व्यक्ति की तलाश में निकल जाता है, जिसकी किडनी उसे लगाई गई है। इन तीन कहानियों के किरदारों के सवालों की खोज का नाम है - ‘शिप ऑफ थीसस’ और इनका अंत इन सवालों के जवाब के साथ किस तरह होता है, इसे देखने के लिए आप को यह फिल्म देखनी होगी।
जहां तक कलाकारों के अभिनय की बात है तो सोहम शाह, और ब्लाइंड फोटोग्राफर के रूप में आदिया ने शानदार अभिनय किया है। भले ही फिल्म में बड़े स्टार नहीं हैं, लेकिन नीरज कांबी ने संत की भूमिका को जिस तरह से जिया है, वह बेहतरीन है। नीरज ने अपनी इस भूमिका के लिए हर माह 4 से 5 किलो वजन कम किया है, जो कहानी की डिमांड थी और ऐसा वे 6 माह तक करते रहे और कुल 17 किलो वजन कम करते हुए रोगी की भूमिका के साथ न्याय किया।
फिल्म की सबसे खास बात उसकी सिनेमेटोग्राफी है, जिसके लिए पंकज कुमार को फिल्म महोत्सव में अवार्ड भी मिल चुका है। यह फिल्म का विजुअल मास्टरपीस है। इमेज क्यों है? कारण क्या? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिसमें पंकज ने कमाल कर दिया। और सबसे खास बात है कि फिल्म की पटकथा बेहद शानदार है। निर्देशक आनंद गांधी ने कहानी कहने का जो अंदाज दिखाया है, वह बताता है कि किस तरह से परदे पर तो कहानी चलती है, लेकिन उसके पीछे दर्शन और विचार चलता है।
अगर आप वास्तव में कुछ अलग और गंभीर किस्म का सिनेमा देखना चाहते हैं तो यह फिल्म देखने आप जा सकते हैं जो आम हिन्दी फिल्मों से बहुत अलग है। यह फिल्म गंभीर और लीक से हटकर है और बदलते बॉलीवुड में आ रहे बदलावों के लिए आप इस फिल्म को देखने जा सकते हैं, लेकिन यह जरूर याद रखें इसे देखने के लिए आपको समय के साथ ही अपना थोड़ा दिमाग भी लगाना पड़ेगा। फिल्म में स्टोरी कहने का अंदाज और उसकी गंभीरता को देखकर आप इस बात पर विश्वास शायद ना कर पाए कि ये वही आंनद गांधी हैं, जिन्होंने एक दशक पहले टीवी के सबसे चर्चित धारावाहिक 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' और 'कहानी घर घर की' के संवाद लिखे थे ।
RAJESH YADAV
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