परिंदा मन और सपनों को जीने की जिद


समीक्षा : लफंगे-परिंदे


रेटिंग : ** १/२
बैनर : यशराज फिल्मस,

निर्माता : आदित्य चोपड़ा,

निर्देशक : प्रदीप सरकार
कलाकार : नील नितिन मुकेश, दीपिका पादुकोण,

म्यूजिक : आर। आनंद,

गीतकार : स्वानंद किरकिरे,

पटकथा : गोपी पुथरन,



फिल्म निर्देशक प्रदीप सरकार ने फिल्म लफंगे-परिंदे के माध्यम से ख्वाबों की उड़ान के सच होने की कहानी से दर्शकांे को रूबरू कराया है। एक अच्छी कहानी पर कमजोर पटकथा के कारण फिल्म उतनी प्रभावी नहीं बन सकी है जितनी की इस फिल्म से दर्शकों को उम्मीदें हैं। हालांकि दीपिका पादुकोण का अभिनय बेहतर है और ब्लाइंड गर्ल के रोल में उन्होंने उम्दा अभिनय किया है। फिल्म की शुरुआत और अंत उतना प्रभावी नहीं बन सका है जितना फिल्म का मध्य भाग है।


आर। आनंद का संगीत कर्णप्रिय है और फिल्म के गीत कहानी के हिसाब से बेहतर बन पड़े हैं। शिल्पा राव की आवाज में नैन परिंदे गीत दर्शकों को भाएगा। दरअसल लफंगे-परिंदें को देखकर फिल्म ब्लाइंड एंबीशन की यादें ताजा हो जाती है। दोनों फिल्मों में बहुत समानता है। गौरतलब है कि ब्लाइंड एंबीशन कई फिल्म महोत्सव में दिखाई जा चुकी है और बेहद पसंद की गई है।


यशराज बैनर की फिल्म लफंगे-परिंदे की कहानी बॉक्सर नंदू (नील नितिन मुकेश) और पिंकी पाल्कर (दीपिका पादुकोण) के इर्द-गिर्द घूमती है। नंदू एक ऐसा बॉक्सर है जो ध्वनि को सुनकर और आंख में पट्टी बांधकर अपने विरोधी को एक पंच में मात देने के लिए जाना जाता है। वहीं दूसरी तरफ पिंकी स्केटिंग का शौक रखती है और अच्छी डांसर है। लेकिन एक एक्सीडेंट के चलते पिंकी देखने की क्षमता खो देती है। नंदू पिंकी की इस हालत के लिए खुद को जिम्मेदार मानता है । इसके चलते वह पिंकी को ध्वनि की उस कला का ज्ञान कराता है जिसके सहारे पिंकी अपने ख्वाबों को सच करने के लिए निकल पड़ती है। फिल्म में अपराध जगत और मुंबई पुलिस का कुछ ऐसा मेल जोड़ा गया है जो फिल्म की कहानी को मोड़ देता है। फिल्म में नील और दीपिका की जुगलबंदी देखने लायक है।


हालांकि फिल्म की कथा के साथ प्रदीप सरकार पूरी तरह से न्याय नहीं कर पाए हैं और यह फिल्म कुछ मामलों में कमजोर बन पड़ी है। फिल्म में दीपिका और नील पर फिल्माया गया किस सीन भी कहानी के साथ न्याय नहीं पाया। फिल्म में जब दर्शकों ने बेहतरीन भावनात्मक आवेग की अपेक्षा की तो निर्देशक ने उस भावनात्मक ज्वार भाटे को एक किस सीन में समेट दिया। प्रदीप सरकार की फिल्मों में अभिनेत्रियों के लिए बेहतरीन अभिनय का अवसर होता है और दीपिका ने बेहतर प्रयास किया है। हालांकि एक लड़की का अचानक अंधेपन का शिकार होने की घटना के बाद अंधेपन के अनुभव की भयावता का प्रभावशाली तरीके से फिल्मांकन होता तो बात कुछ और होती।


फिल्म में संवाद लेखन में वह पंच नहीं आ पाया है जिससे अभिनय की तीव्रता को परदे पर उभारने में सहायता मिलती, फिर भी कुछ सवांद अपनी छाप छोड़ते हैं। नील नितिन मुकेश अपने रोल के हिसाब से ठीक-ठाक रहे हैं लेकिन जॉनी गद्दार जैसी प्रभावी फिल्म से शुरुआत करने वाले नील से उनके प्रशंसक इससे कुछ ज्यादा की उम्मीद करते हैं। फिल्म युवाओं को पसंद आएगी।
राजेश यादव

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